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प्रवासी हूँ, मज़बूर हूँ - प्रीती झाकड़ा 


नये शहर में हर प्रवासी की कहानी 


"गांव माटी दूर तोहे छोड़ आए, घर में भूखे भात लाने दूर आए, मोतियों सी आंसू रोती अम्मा मेरी, जाने कैसे मुन्ना मेरा रात खाएं"।

ये गाना मेरे कीपैड फोन में चल रहा था, और कानों में लगी थी सदर बाजार से ली हुई 30 रूपये वाली लीड, जो मैंने अपनी उदासी को गाने के पीछे छिपाने के लिए खरीदी थी।  आज पता नहीं क्यों बार-बार ये गाना सुनने को जी चाह रहा था। वैसे तो मुझे और भी गाने बहुत पसंद है पर ये गाना मेरा सबसे पसंदीदा गाना हो गया है जब से मैंने गांव छोड़ा है। आसान नहीं था, बहुत मुश्किल था और शायद ये मेरे लिए ही नहीं मेरे जैसे बहुत मजदूरों के लिए इतना संघर्ष भरा है। कभी-कभी जब पीछे की ज़िन्दगी में जाकर सब याद करता हूं तो सोचता हूं नए शहर में काम पाने की कोशिश करते हुए प्रवासी श्रमिकों की ये समस्याएं कब दूर होंगी, कब हमें आसानी से काम मिल पाएगा? ये सवाल मेरे ज़हन में ही नहीं मेरे जैसे लाखों लोगों के ज़हन में है। 


गुड़गांव आने से पहले गुड़गांव के बारे में बहुत सुना था। बहुत बड़ा शहर है, ऊँची - ऊँची बिल्डिंगें हैं यहां, बहुत लोग हैं, काम बहुत मिल सकता है और फिर दिल्ली जिसे देश की राजधानी कहा जाता है वो भी तो पास में ही है और फिर दिल्ली में भी बहुत काम हैं। यहां आया तो बड़ी बड़ी मंज़िलें मिली, हर जगह बहुत लोग दिखे, कोई घूम रहा था कोई बड़े से होटल में बैठकर खाना खा रहा था, सच बोलूं तो बहुत अच्छा लग रहा था, पर मेरे लिए अपना काम इस वक्त सबसे ऊपर था। मैं काम की तलाश में इधर-उधर भटकता रहा। दसवीं बड़ी मुश्किल से पास की थी वो भी अपने गांव के सरकारी स्कूल से, यहां के लोग दसवीं को कुछ नहीं समझते, शायद लोगों के दिमाग में आदमी को पढ़ने वाला मशीन फिट है, मुझे बताने की ज़रुरत नहीं पड़ती और लोग मुझे देखकर ही मेरी ज़िंदगी  के बारे में जान जाते हैं, मैं कौन हूं, कहां से हूं, क्या मैंने पढ़ा होगा इत्यादि। 



एक दिन किसी मजदूर के बताने पर मैं किसी कंपनी में चला गया, उन्होंने पूछा शहर में कब से हो, मैंने कहा नया हूं, उन्होंने मेरे मुंह पर ही मुझे काम देने से मना कर दिया, कुछ समय के लिए लगा की नया बताकर कहीं कोई गलती तो नहीं की? फिर लगा कि नहीं ये शहर के लोग बड़े होशियार हैं। ये झूठ को भी पकड़ लेते हैं। घर से लाए हुए थोड़े बहुत पैसे में किराए पर एक छोटा सा कमरा तो ले लिया था, लेकिन वो भी मुश्किल से ख़ैर बात तो नौकरी की थी ना। एक दिन पड़ोसी से पूछा कि ये कंपनी वाले नौकरी काहे नहीं देते नए आदमी को? पड़ोसी ने कहा भरोसा नाही करत नए आदमी पर, उनको लगता है पता नहीं हम कब भाग जाए और क्या कर दे। 


लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालो की कभी हार नहीं होती..... हरिवंशराय बच्चन साहब की ये कविता तो सबने सुनी है। मैंने भी कई बार सुनी और मन में एक नई आस जगाई। फिर से गया एक कंपनी में वहां उन्होंने आईडी प्रूफ के नाम पर काफी सारे काग़ज़ मांग लिए जिनमें से आधे हमारे पास नहीं थे, गांव में इन सब पे ध्यान कौन देता है, हाँ अगर कोई बनवाने में मदद कर दे तो जरूर बनवा ले। नया शहर, नया मैं तो फिर से कंपनी ने काम नहीं दिया। उन साहब को किसी से फोन पर बात करते हुए सुना, कह रहे थे 40,45 साल का है सर, अजीब सा लग रहा है दिखने में, भाषा भी कुछ खास समझ नही आ रही इसकी, आता जाता भी कुछ नहीं है। उन 4 लाइनों ने मेरे दिमाग को सवालों के घेरे में ले लिया, उम्र थोड़ी ज़्यादा है युवा नहीं हूं पर काम कर सकता हूं, कपड़े अच्छे नहीं पहने पर गंदे भी नहीं पहने, हिंदी अच्छी नहीं आती पर मैंने बोला क्या ये उनको समझ तो सब आ रहा था, काम अगर वो सिखाते तो वो सब कर ही लेता, आख़िर प्रशिक्षण तो सब देते हैं।


थका-हारा रूम पर लौटा तो कुछ पड़ोसी बात कर रहे थे आपस में कोई कह रहा था, मैं तो पढ़ा लिखा हूं भाई और अच्छी कंपनी में काम कर सकता हूं लेकिन मैं नया और ये शहर नया होने की वजह से मुझे वो काम नही मिला जो मैं करना चाहता था, मजबूरी में छोटी - मोटी नौकरी करनी पड़ रही है। दूसरा कोई भाई कह रहा था कंपनी डायरेक्ट काम तो मुश्किल से देती है तो ठेकेदार के जरिए काम लिया लेकिन उसने पैसे बहुत मांग लिए काम दिलवाने के लिए। तीसरे एक भाई ने कहा कि आप लोगों को जैसे -तैसे कोई काम तो मिला एक ठेकेदार ने मेरे पैसे खा लिए और काम भी नहीं दिलाया, अब छोटा सा सब्जी पूरी का ठेला लगाता हूं उसमें भी कुछ लोग आकर तमाशा करते हैं। 



ये सब सुनकर लगा शहर में चकाचौंध जितनी है, उतनी ही लाचारी भी। अपने कान में लीड लगाई और हरिवंशराय बच्चन की कविता (कोशिश करने वालों की हार नहीं होती) को सुनते -सुनते फिर से कल काम ढूंढने की सोच में चला गया।



 

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