Rukta Nahin - Anuj Pareek
दिन भर की थकान से चूर रात को वैसे ही पड़ जाता हूँ
मुर्दे को मृत्यु के बाद दी जाती है मुखाग्नि
पर मैं ठीक वैसे ही हर सुबह जाग उठता हूँ
अपने अंदर लगी आग को बुझाने की चाह में
दौड़ता हूँ, चलता हूँ, थकता हूँ पर रुकता नहीं।
न जाने कितनी चाहतों को अपने अंदर लिए
हार थक के भी काम करता हूँ
कभी मुझमें चाहत होती है उन सभी सपनों को पूरा करने की
तो कभी ज़रूरतों को पूरा करने की जदोजहद में खुद से भी लड़ जाता हूँ
थकता हूँ, थोड़ा रुकता हूँ पर कभी हार नहीं मानता।
कभी थोड़ी निराशा भी होती है हावी मुझ पर
लेकिन हाँ थोड़ी देर में ही उठ खड़ा होता हूँ
ठीक वैसे ही जैसे एक स्खलित आदमी का कामोत्तेजना की चाह में फिर से खड़ा हो जाना
ऐसे ही रोज़ दौड़ता हूँ, चलता हूँ, थकता हूँ पर रुकता नहीं।।
अनुज पारीक
बहुत ही सामयिक और खूबसूरत कविता।आज हर आदमी इसी तरह का जीवन जी रहा है या यूं कह लीजिए कि जीवन काट रहा है भागदौड़ की ज़िन्दगी।
ReplyDeleteKeep Reading, Keep Smiling
DeleteStay Tune Dhun Zindagi...
क्योंकि ज़िन्दगी में धुन का होना ज़रूरी है।
आज के दौर यानि हम जैसे जी रहे हैं कॉर्पोरेट कल्चर और भाग दौड़ भरी ज़िन्दगी पर ये कविता लिखी है जो हर व्यक्ति पर सटीक बैठती है।
Deleteलेकिन ज़िन्दगी काटो नहीं जियो
धुन ज़िन्दगी की
https://youtu.be/rgVG0Hhwp1Q
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