महान कवि अवतार सिंह संधू "पाश"
23 मार्च शहीद दिवस महज़ 22-23 की उम्र में देश को आज़ाद कराने के लिए हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए थे ये वीर सपूत शहीद भगत सिंह, शहीद राजगुरु, शहीद सुखदेव।
23 मार्च 1931 को इन वीर सपूतों को फांसी दी गयी थी देश की आज़ादी में इन शहीदों के बलिदान को देश हमेशा याद रखेगा।
जिन्हें अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी दी थी और इसके 57 साल बाद 23 मार्च 1988 को एक और क्रांतिकारी और महान कवी अवतार सिंह संधू "पाश" की उन्हीं के गाँव में खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गयी। यह संयोग हो सकता है कि भगत सिंह के शहीद दिवस अर्थात 23 मार्च को ही पंजाब में पैदा हुए अवतार सिहं ‘पाश’ भी शहीद होते हैं। यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की परंपरा का सबसे बेहतरीन विकास है। यह शहादत राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण है।
उसकी शहादत के बाद बाक़ी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताज़ा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झाँकी की
देश सारा बचा रहा बाक़ी
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देश के वीर सपूतों को को शत्-शत् नमन
शहीददिवस पर पेश है महान कवि पाश की कविताएं
अब विदा लेता हूं
23 मार्च 1931 को इन वीर सपूतों को फांसी दी गयी थी देश की आज़ादी में इन शहीदों के बलिदान को देश हमेशा याद रखेगा।
जिन्हें अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी दी थी और इसके 57 साल बाद 23 मार्च 1988 को एक और क्रांतिकारी और महान कवी अवतार सिंह संधू "पाश" की उन्हीं के गाँव में खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गयी। यह संयोग हो सकता है कि भगत सिंह के शहीद दिवस अर्थात 23 मार्च को ही पंजाब में पैदा हुए अवतार सिहं ‘पाश’ भी शहीद होते हैं। यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की परंपरा का सबसे बेहतरीन विकास है। यह शहादत राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण है।
उसकी शहादत के बाद बाक़ी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताज़ा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झाँकी की
देश सारा बचा रहा बाक़ी
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देश के वीर सपूतों को को शत्-शत् नमन
शहीददिवस पर पेश है महान कवि पाश की कविताएं
अब विदा लेता हूं
अब विदा लेता हूं
अब विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का जिक्र होना था
ईख की सरसराहट का जिक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का जिक्र होना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सब कुछ का जिक्र होना था
उस कविता में मेरे हाथों की सख्ती को मुस्कुराना था
मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और जिन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगुनों से भरी वह कविता
तो उसे वैसे ही दम तोड़ देना था
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के खिलाफ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है
युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुंबन के लिए बढ़े होंटों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र के सांस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आंगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गांव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हां, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है
मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूं
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जो हमारे मिलने से हसीन हो गई
मैं शुक्रिया करता हूं
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेंहू की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूं, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूं, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास शुक्राना है
मैं शुक्रिया करना चाहता हूं
प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि जुल्म को झेलते हुए खुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफा में पड़े रहकर
जख्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूंज जाना -
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें जिन्दगी ने बनिए बना दिया
जिस्म का रिश्ता समझ सकना,
खुशी और नफरत में कभी भी लकीर न खींचना,
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फि़दा होना,
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना,
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूं
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हें कभी आएगा नही
जिन्हें जिन्दगी ने हिसाबी बना दिया
ख़ुशी और नफरत में कभी लीक ना खींचना
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फिदा होना
सहम को चीर कर मिलना और विदा होना
बहुत बहादुरी का काम होता है मेरी दोस्त
मैं अब विदा होता हूं
तू भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया
कि मेरी नजरों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक्शों की धार बांधने में
कि मेरे चुंबनों ने
कितना खूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा कि मेरे आलिंगनों ने
तेरा मोम जैसा बदन कैसे सांचे में ढाला
तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त
सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी
कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे भी हिस्से का जी लेना
मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना।
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“सबसे ख़तरनाक”
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक़्त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता
सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
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सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
9 सितंबर 1950 को जन्मे पाश का मूल नाम अवतार सिंह संधु था। महज 15 साल की उम्र से ही पाश ने कविता लिखनी शुरू कर दी और उनकी कविताओं का पहला प्रकाशन 1967 में हुआ। उन्होंने सिआड, हेम ज्योति और हस्तलिखित हाक पत्रिका का संपादन किया। पाश 1985 में अमेरिका चले गए। उन्होंने वहां एंटी 47 पत्रिका का संपादन किया। पाश ने इस पत्रिका के जरिए खालिस्तानी आंदोलन के खिलाफ सशक्त प्रचार अभियान छेडा।
पाश कविता के शुरुआती दौर से ही भाकपा से जुड गए। उनकी नक्सलवादी राजनीति से भी सहानुभूति थी। पंजाबी में उनके चार कविता संग्रह.. लौह कथा, उड्डदे बाजां मगर, साडे समियां विच और लड़ेंगे साथी प्रकाशित हुए हैं। पंजाबी के इस महान कवि की महज 39 साल की उम्र में 23 मार्च 1988 को उनके ही गांव में खालिस्तानी आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। पाश धार्मिक संकीर्णता के कट्टर विरोधी थे। धर्म आधारित आतंकवाद के खतरों को उन्होंने अपनी एक कविता में बेहद धारदार शब्दों में लिखा है- मेरा एक ही बेटा है धर्मगुरु वैसे अगर सात भी होते वे तुम्हारा कुछ नहीं कर सकते थे तेरे बारूद में ईश्वरीय सुगंध है तेरा बारूद रातों को रौनक बांटता है तेरा बारूद रास्ता भटकों को दिशा देता है मैं तुम्हारी आस्तिक गोलियों को अर्ध्य दिया करूंगा..।
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जिन्हें अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी दी थी और इसके 57 साल बाद ‘पाश’ पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह आतंकवादियों की गोलियों का निशाना बने. यह संयोग हो सकता है कि भगत सिंह के शहीद दिवस अर्थात 23 मार्च को ही पंजाब में पैदा हुए अवतार सिहं ‘पाश’ भी शहीद होते हैं लेकिन इनके उद्देश्य व विचारों की एकता संयोग नहीं है. यह वास्तव में भारतीय जनता की सच्ची आजादी के संघर्ष की परंपरा का सबसे बेहतरीन विकास है. यह शहादत राजनीति और संस्कृति की एकता का सबसे अनूठा उदाहरण है.
जो लोग भगत सिंह और उनके साथियों के विचारों से थोड़ा भी परिचित हैं, वे जानते हैं कि उन्होंने एक ऐसे भारतीय समाज का सपना देखा था जो दमन, अत्याचार, शोषण व अन्याय जैसे मानव विरोधी मूल्यों से सर्वथा मुक्त हो तथा जहां सत्ता मजदूरों-किसानों के हाथों में हो. भगत सिंह के विचारों की रोशनी में देखें तो 15 अगस्त 1947 की आज़ादी की लड़ाई को जारी रखने तथा पूरी करने के लिए वे वैचारिक आवेग प्रदान करते हैं।
पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में नये पीढ़ी के कवियों ने पंजाबी कविता को नया रंग-रूप प्रदान किया. अवतार सिंह पाश इन्हीं की अगली पांत में थे।
उनकी पहली कविता 1967 में छपी थी. अमरजीत चंदन के संपादन में भूमिगत पत्रिका ‘दस्तावेज’ के चौथे अंक में परिचय सहित पाश की कविताओं का प्रकाशन पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में धमाके की तरह था. उन दिनों पंजाब में क्रांतिकारी संघर्ष अपने उभार पर था. पाश का गांव तथा इलाका इस संघर्ष के केन्द्र में था. उन्होंने इसी संघर्ष की जमीन पर कविताएं रचीं और इसके ‘जुर्म’ में गिरफ्तार हुए. करीब दो वर्षों तक जेल में रहकर सत्ता के दमन का मुकाबला करते हुए उन्होंने ढेरों कविताएं लिखीं। वहीं रहते उनका पहला कविता संग्रह ‘लोककथा’ प्रकाशित हुआ जिसने पंजाबी कविता में उनकी पहचान दर्ज करा दी।
1972 में जेल से रिहा होने के बाद पाश ने ‘सिआड’ नाम की साहित्यिक पत्रिका निकालनी शुरू की. पंजाब में क्रांतिकारी आंदोलन बिखरने लगा था. साहित्य के क्षेत्र में भी पस्ती व हताशा का दौर शुरू हो गया था. ऐसे में पाश ने आत्मसंघर्ष करते हुए सरकारी दमन के खिलाफ व जन आंदोलनों के पक्ष में रचनाएं की. पंजाब के लेखकों-संस्कृति कर्मियों को एकजुट व संगठित करने के प्रयास में पाश ने ‘पंजाबी साहित्य-सभ्याचार मंच’ का गठन किया तथा अमरजीत चंदन, हरभजन हलवारही आदि के साथ मिलकर ‘हेमज्योति’ पत्रिका निकाली. इस दौर की पाश की कविताओं में भावनात्मक आवेग की जगह विचार व कला की ज्यादा गहराई थी. चर्चित कविता ‘युद्ध और शांति’ उन्होंने इसी दौर में लिखी. 1974 में उनका दूसरा कविता संग्रह ‘उडडदे बाजा मगर’ छपा और तीसरा संग्रह ‘साडे समियां विच’ 1978 में प्रकाशित हुआ।
उनकी मृत्यु के बाद ‘लड़ेगें साथी’ शीषर्क से चौथा संग्रह आया जिसमें प्रकाशित व अप्रकाशित कविताएं संकलित हैं. पाश की कविताओं का मूल स्वर राजनीतिक-सामाजिक बदलाव अर्थात क्रांति और विद्रोह का है. उनमें एक तरफ सांमती-उत्पीड़कों के प्रति जबर्दस्त गुस्सा व नफरत का भाव है, वहीं अपने जन के प्रति अथाह प्यार है।
“हम लड़ेंगे साथी”
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिये
हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिये
हम चुनेंगे साथी, जिंदगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, प्रश्न नाचता है
प्रश्न के कंधों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
कत्ल हुए जज्बों की कसम खाकर
बुझी हुई नजरों की कसम खाकर
हाथों पर पड़े घट्टों की कसम खाकर
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का मूत पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले खुद नहीं सूंघते
कि सूजी आंखों वाली
गांव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्व से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाईयों का गला घोटने को मजबूर हैं
कि दफतरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की जरुरत बाकी है
जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद जिंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे.
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