जहाज का पंछी जहाज पर लौट आया......या फिर मौका परस्त राजनीति - गौरी शंकर शर्मा
Guest Writer
जब आप किसी पार्टी से जुड़ते हैं तो आप एक विचारधारा से जुड़ते हैं। हो सकता है वो साम्यवादी सोच हो, माक्र्सवादी सोच हो या फिर दलित या अल्पसंख्यक उत्थान। विचारधारा कोई भी हो सकती है। आपको पूरा हक़ है कि आप उस विचारधारा से जुड़े और अन्य लोगों को भी उससे जोड़ें। आप किसी एक राह पर चल पड़े हैं,
हज़ारों, लाखों लोग आपके साथ जुड़ चुके हैं। पर जब आप ही अपनी विचारधारा और राह को बदल लें तो उन लोगों का क्या होगा जो आपकी उस विचारधारा उस सोच के कारण आपसे जुड़े हैं।
देश के वर्तमान राजनैतिक हालातों में भी यही हो रहा है। पुराने जमाने के एक सलामी बल्लेबाज पहले जहां एक पार्टी के नेताओं को सलामी दे रहे थे, उन्होंने अब मौका देखकर चैका मारा और पहले जिसके बुरे गीत गाते थे अब उस को सलामी दे रहे हैं। क्या उनके अनुयायी उनसे पूछ सकते हैं कि वे अब कहां जाएं? क्या वे पहले सही थे या अब? भई किसी बल्लेबाज को विपक्षी टीम अगर ओपनिंग करवाने का लालच दे दे तो क्या वो टीम बदल लेगा?
इसी तरह एक वरिष्ठ नेता को राज्यसभा में जाने का मोह इस कदर हुआ कि पिछले 3 सालों से वे जिस पार्टी से दूर थे और उसकी नीतियों के खिलाफ थे। अब उन्होने उसी का दामन फिर पकड़ लिया। कह रहे हैं कि जहाज का पंछी जहाज पर लौट आया। पर क्या वाकई ये बात सही है? क्या ये पहले भटक गये थे या अब?
किसी कम्पनी का कर्मचारी ज़्यादा सैलरी मिलने पर कंपनी बदले वो बात सही है। पर किसी राजनैतिक पार्टी से जुड़ना मतलब किसी विचारधारा से जुड़ना। पार्टी कोई कंपनी नहीं कि जब चाहे बदल ली। यानि खुद को फायदा नहीं तो विचारधारा बदल लो! ये तो सही विचार नहीं है। किसी नेता को कोई मुख्यमंत्री बनने या कोई बड़ा मंत्री बनाने का लालच देगा तो वो कभी भी अपनी विचारधारा और पार्टी दोनों बदल लेगा। क्या कभी कोई हिमायती यह पूछने की हिम्मत करेगा कि भाई तूने तो अपने फायदे के लिए विचारधारा बदल ली। अब हम कहां जाये? इसी विचारधारा के कारण हम तेरे साथ थे। जहाज का पंछी तो जहाज पर लौट आया पर हमें तो आप दूसरी नौका में ही बिठा आये। हमारा तो डूबना निश्चित है।
जितने भी गठबंधन हैं उनमें भी ये ही हो रहा है। सब एक दूसरे के बुरे गीत गाते हैं। एक दूसरे को नीचा दिखाने में हदें पार कर जाते हैं पर जब कोई तीसरा ताकतवर आता है तो सारे मिल जाते हैं। उसे नाम दे देते हैं गठबंधन। ये गठबंधन कोई प्यार का बंधन नहीं है, ये बंधन है सिर्फ लालच का, सत्ता हासिल करने का और थूक कर चाटने का। हम यूपी, बिहार सब जगह ऐसा देख चुके हैं। कितना अच्छा हो अगर हमारे देश में भी अमेरिका की तरह सिर्फ दो ही पार्टी हों।
इसी तरह कोई भी भावी नेता कुछ बेरोज़गारों को लेकर अपनी मांगे मनवाने के लिए उनसे चक्का जाम, तोड़फोड़ जैसी हरकतें करवाता है। फिर एक दिन खुद तो किसी पार्टी की टिकट ले लेता है और सफेद वस्त्र धारण कर लेता है। वो बरगलाये हुए बेरोज़गार युवा बेचारे फिर किसी और नेता के साथ मिलकर ये ही सब करते हैं।
हमें, खास तौर पर हमारे युवा वर्ग को ये समझना होगा कि आप किसी के हाथ की कठपुतली नहीं हैं, ना ही सिर्फ वोट बैंक। हम किसी से उसकी विचारधारा के कारण जुड़ रहे हैं और वो अपने फायदे के लिए अपनी विचारधारा बदल रहा है तो क्या हम उससे जुड़े रहेंगे? क्यों न हम उसे ही बदल दें। आखिर हमारा भी कोई स्टैंड है। इसलिए ऐसे दलबदलू लोगों के साथ डोंट बी ए पिछलग्गू।
गौरी शंकर शर्मा
लेखक काॅपीराइटर, गीतकार, साॅशल मीडिया एक्सपर्ट
जब आप किसी पार्टी से जुड़ते हैं तो आप एक विचारधारा से जुड़ते हैं। हो सकता है वो साम्यवादी सोच हो, माक्र्सवादी सोच हो या फिर दलित या अल्पसंख्यक उत्थान। विचारधारा कोई भी हो सकती है। आपको पूरा हक़ है कि आप उस विचारधारा से जुड़े और अन्य लोगों को भी उससे जोड़ें। आप किसी एक राह पर चल पड़े हैं,
हज़ारों, लाखों लोग आपके साथ जुड़ चुके हैं। पर जब आप ही अपनी विचारधारा और राह को बदल लें तो उन लोगों का क्या होगा जो आपकी उस विचारधारा उस सोच के कारण आपसे जुड़े हैं।
देश के वर्तमान राजनैतिक हालातों में भी यही हो रहा है। पुराने जमाने के एक सलामी बल्लेबाज पहले जहां एक पार्टी के नेताओं को सलामी दे रहे थे, उन्होंने अब मौका देखकर चैका मारा और पहले जिसके बुरे गीत गाते थे अब उस को सलामी दे रहे हैं। क्या उनके अनुयायी उनसे पूछ सकते हैं कि वे अब कहां जाएं? क्या वे पहले सही थे या अब? भई किसी बल्लेबाज को विपक्षी टीम अगर ओपनिंग करवाने का लालच दे दे तो क्या वो टीम बदल लेगा?
इसी तरह एक वरिष्ठ नेता को राज्यसभा में जाने का मोह इस कदर हुआ कि पिछले 3 सालों से वे जिस पार्टी से दूर थे और उसकी नीतियों के खिलाफ थे। अब उन्होने उसी का दामन फिर पकड़ लिया। कह रहे हैं कि जहाज का पंछी जहाज पर लौट आया। पर क्या वाकई ये बात सही है? क्या ये पहले भटक गये थे या अब?
किसी कम्पनी का कर्मचारी ज़्यादा सैलरी मिलने पर कंपनी बदले वो बात सही है। पर किसी राजनैतिक पार्टी से जुड़ना मतलब किसी विचारधारा से जुड़ना। पार्टी कोई कंपनी नहीं कि जब चाहे बदल ली। यानि खुद को फायदा नहीं तो विचारधारा बदल लो! ये तो सही विचार नहीं है। किसी नेता को कोई मुख्यमंत्री बनने या कोई बड़ा मंत्री बनाने का लालच देगा तो वो कभी भी अपनी विचारधारा और पार्टी दोनों बदल लेगा। क्या कभी कोई हिमायती यह पूछने की हिम्मत करेगा कि भाई तूने तो अपने फायदे के लिए विचारधारा बदल ली। अब हम कहां जाये? इसी विचारधारा के कारण हम तेरे साथ थे। जहाज का पंछी तो जहाज पर लौट आया पर हमें तो आप दूसरी नौका में ही बिठा आये। हमारा तो डूबना निश्चित है।
जितने भी गठबंधन हैं उनमें भी ये ही हो रहा है। सब एक दूसरे के बुरे गीत गाते हैं। एक दूसरे को नीचा दिखाने में हदें पार कर जाते हैं पर जब कोई तीसरा ताकतवर आता है तो सारे मिल जाते हैं। उसे नाम दे देते हैं गठबंधन। ये गठबंधन कोई प्यार का बंधन नहीं है, ये बंधन है सिर्फ लालच का, सत्ता हासिल करने का और थूक कर चाटने का। हम यूपी, बिहार सब जगह ऐसा देख चुके हैं। कितना अच्छा हो अगर हमारे देश में भी अमेरिका की तरह सिर्फ दो ही पार्टी हों।
इसी तरह कोई भी भावी नेता कुछ बेरोज़गारों को लेकर अपनी मांगे मनवाने के लिए उनसे चक्का जाम, तोड़फोड़ जैसी हरकतें करवाता है। फिर एक दिन खुद तो किसी पार्टी की टिकट ले लेता है और सफेद वस्त्र धारण कर लेता है। वो बरगलाये हुए बेरोज़गार युवा बेचारे फिर किसी और नेता के साथ मिलकर ये ही सब करते हैं।
हमें, खास तौर पर हमारे युवा वर्ग को ये समझना होगा कि आप किसी के हाथ की कठपुतली नहीं हैं, ना ही सिर्फ वोट बैंक। हम किसी से उसकी विचारधारा के कारण जुड़ रहे हैं और वो अपने फायदे के लिए अपनी विचारधारा बदल रहा है तो क्या हम उससे जुड़े रहेंगे? क्यों न हम उसे ही बदल दें। आखिर हमारा भी कोई स्टैंड है। इसलिए ऐसे दलबदलू लोगों के साथ डोंट बी ए पिछलग्गू।
गौरी शंकर शर्मा
लेखक काॅपीराइटर, गीतकार, साॅशल मीडिया एक्सपर्ट
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि धुन ज़िन्दगी उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.
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